( ब्यूरो ,न्यूज़ 1 हिन्दुस्तान )
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं की जिंदगी से जुड़ा एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इसके तहत अब देश की सभी महिलाओं को गर्भपात का अधिकार मिल गया है। यानी अब विवाहित हों या अनमैरिड कोई भी महिला गर्भपात करा सकती है। वे 24 हफ्ते तक गर्भपात करा सकती हैं। SC ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी रूल्स के नियम 3-B का विस्तार कर दिया है। अभी तक सामान्य मामलों में 20 हफ्ते से अधिक और 24 हफ्ते से कम के गर्भ के अबॉर्शन का अधिकार सिर्फ विवाहित महिलाओं को ही था। महिला अधिकारों से जुड़ा यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की डीवाई चंद्रचूड़ सिंह की बेंच ने सुनाया है।
24 हफ्ते तक करा सकती हैं गर्भपात
सुप्रीम कोर्ट ने विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच गर्भपात के अधिकार के भेद को मिटाते हुए फैसले में कहा है कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट से अविवाहित महिलाओं को लिव-इन रिलेशनशिप से बाहर करना असंवैधानिक है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अविवाहित, खासकर अनचाहे बच्चे से गर्भवती महिलाओं को सम्मानजनक जीने का मौका मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 21 के तहत प्रजनन की स्वायत्तता गरिमा और गोपनीयता का अधिकार एक अविवाहित महिला को ये हक देता है कि बच्चे को जन्म देन चाहे या नहीं। कोर्ट ने दो टूक कहा कि 20-24 सप्ताह के बीच का गर्भ रखने वाली सिंगल या अविवाहित गर्भवती महिलाओं को गर्भपात करने से रोकने से आर्टिकल-14 की आत्मा का उल्लंघन होगा, जबकि विवाहितों को यह हक मिला हुआ है।
एक दिन पहले केरल हाईकोर्ट ने दिया था बड़ा फैसला
केरल हाई कोर्ट ने मंगलवार(28 सितंबर) को एक अहम आदेश दिया था। कोर्ट ने पति से अलग रहने वाली एक महिला को अपने 21 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति दे दी थी। जस्टिस वीजी अरुण ने अपने फैसले में कहा था कि गर्भपात के लिए मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेग्नेंसी एक्ट (एमटीपी एक्ट) के तहत पति की सहमति जरूरी नहीं है। दरअसल, एमटीपी अधिनियम के नियमों के अनुसार, सामान्य परिस्थितियों में 20 से 24 सप्ताह के गर्भ को खत्म करने की ही अनुमति दी जाती रही है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने इसमें भी बदलाव कर दिया है। दरअसल, याचिकाकर्ता जब ग्रेजुएशन कर रही थी, तब उसने बस कंडक्टर के साथ अपने परिवार की मर्जी के विरुद्ध जाकर लवमैरिज कर ली थी। लेकिन शादी के बाद पति और उसकी मां ने दहेज की मांग करने लगे। उसके साथ दुर्व्यवहार किया जाने लगा।। महिला ने याचिका में कहा कि वो बच्चा नहीं चाहती थी। जब वो गर्भपात कराने के लिए लोकल क्लीनिक गई, तो डॉक्टरों ने मना कर दिया। उसके पास तलाक जैसा कोई डॉक्यूमेंट नहीं था। तब उसने पति के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। लेकिन डॉक्टर ने FIR को भी नहीं माना। लिहाजा उसे कोर्ट आना पड़ा।
दुष्कर्म में मैरिटल रेप भी शामिल, इसलिए ऐसे मामलों में गर्भपात अधिकार
सुप्रीम कोर्ट गर्भपात को लेकर गुरुवार को सुनाए गए अहम फैसले में कहा है कि पति द्वारा किया जाने वाला दुष्कर्म ‘मैरिटल रेप‘ की दशा में भी 24 सप्ताह की तय सीमा में पत्नी गर्भपात करा सकती है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत इसे शामिल किया जाना चाहिए। यह अधिकार उन महिलाओं के लिए राहतकारी होगा, जो अनचाहे गर्भ को जारी रखने को विवश हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने एमटीपी अधिनियम की व्याख्या की
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी कहा कि उक्त कानून में वैवाहिक बलात्कार ‘मैरिटल रेप‘ को भी शामिल माना जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में एमटीपी अधिनियम की व्याख्या करते हुए यह व्यवस्था दी। पीठ ने कहा उक्त कानून के उद्देश्यों को देखते हुए विवाहित और अविवाहित महिला के बीच का अंतर कृत्रिम है और इसे संवैधानिक रूप से कायम नहीं रखा जा सकता है। यह उस रूढ़िवादिता को कायम रखने वाला है कि केवल विवाहित महिलाएं ही यौन संबंधों में लिप्त होती हैं।
2021 के संशोधन में पति की जगह ‘पार्टनर‘ शब्द का उपयोग किया था
अदालत ने यह भी नोट किया कि 2021 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में किए गए संशोधन में अविवाहित महिला को भी शामिल करने के लिए पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया था। अदालत ने कहा है कि संसदीय मंशा वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न स्थितियों के लाभों को सीमित करने की नहीं थी। वास्तव में यह एक विधवा या तलाकशुदा महिला को 20-24 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति है।
एकल व अविवाहित महिलाओं को वंचित रखना समानता के अधिकार का उल्लंघन
यह ऐतिहासिक फैसला जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनाया। कोर्ट ने कहा कि उक्त कानून के नियम 3 बी के दायरे में एकल महिलाओं को शामिल करना अनुचित है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सभी के समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है। अविवाहित और एकल महिलाओं को गर्भपात से रोकना और सिर्फ विवाहित महिलाओं को अनुमति देना संविधान में दिए गए नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन है।