* किशोर ने कहा कि आवश्यकता हुई तो सोशल डिस्टेंश के मानकों का पालन करते हुये वनाधिकार आन्दोलन का एक प्रतिनिधि मण्डल समिति से वार्ता हेतु आग्रह भी करेगा।
( ब्यूरो ,न्यूज़ 1 हिन्दुस्तान )
देहरादून। वनाधिकार आन्दोलन ने इन्दुकुमार पांडे समिति से कोरोना महामारी के इस संकट के समय उत्तराखंडियों की जीवन रक्षा के लिये बिजली-पानी व प्रतिमाह एक रसोई गैस सिलेंडर निशुःल्क देने की अपनी माँग को दुहराया है। वनाधिकार आन्दोलन के प्रणेता किशोर उपाध्याय ने बताया कि उन्होंने श्री पांडे से फोन ओर बातचीत की है और वनाधिकार की माँगों को वट्अप व मेल के द्वारा ज्ञापन भेज दिया है।किशोर ने कहा कि आवश्यकता हुई तो सोशल डिस्टेंश के मानकों का पालन करते हुये वनाधिकार आन्दोलन का एक प्रतिनिधि मण्डल समिति से वार्ता हेतु आग्रह भी करेगा। वनाधिकार आन्दोलन ने अपने ज्ञापन में कहा है कि आज जब प्रवासी अपने गावों को वापस दौड़ पड़े हैं तो वनाधिकार आन्दोलन और भी प्रासंगिक हो गया है और हमारे वनों के पुश्तैनी हक-हकूकों को हमें वापस लेना पड़ेगा, भले ही उसका स्वरूप बदल लें, कोरोना की विभीषिका के कारण कार्यक्रम आयोजित नहीं हो सकता था, लेकिन हम अपने अधिकारों को छोड़ेंगे नहीं, इस स्थिति से उबरने के बाद आन्दोलन को पुनरू मजबूती के साथ खड़ा किया जायेगा। हमारी सबसे पहली माँग निशुल्क बिजली-पानी और हर माह एक रसोई गैस सिलेंडर भी। सरकार आज ही इसकी घोषणा करे।
किशोर ने कहा कि मुझे खुशी है कि अपने पुश्तैनी हक-हकूकों व अधिकारों के प्रति उत्तराखंड का युवा अब मुझसे सवाल पूछने लगा है। कहने लगा है कि आपने ये सवाल पहले क्यों नहीं उठाये? वाजिब सवाल है, लेकिन ये सवाल तो उन्हें मुझसे पूर्व के बड़े-बड़े जनप्रतिनिधियों से नहीं पूछने चाहिये थे? मैं, उन्हें भी दोष नहीं दे सकता, लेकिन यह कहना चाहता हूँ कि हमें जब जागो-तभी सवेरा की से आगे बढ़ना चाहिये। हम मुफ्तखोर नहीं हैं, अपने हक लेने के इस विनम्र प्रयास के सहयोगी बनिये। दिल्ली में बिजली-पानी के चुनाव पर सकारात्मक प्रभाव के बाद उत्तराखंड में भी कई सज्जनों ने यह माँग उठानी शुरू कर दी है। वनाधिकार आन्दोलन पिछले दो वर्षों से इन माँगो को लेकर आन्दोलनरत है, लेकिन हम मुफ्तखघेरी के पक्ष में नहीं है, हम तो क्षतिपूर्ति की बात कर रहे हैं।देश की आजादी के साथ ही हमें ये सहूलियतें मिलनी चाहिये थीं। 72 प्रतिशत वनक्षेत्र होने के बावजूद, हमें फोरेस्ट डेवलेयर नहीं माना जा रहा है। जब तक सरकारों ने हमारे जंगलों पर कब्जा नहीं किया था, पलायन दूर-दूर न था। भले ही हमारे पास 2-4 नाली जमीन रही हो, लेकिन हम लोग सैकड़ों हेक्टेयर के मालिक थे। जंगल हमारी जिन्दगी थी,आपने उसको हमसे छीन लिया और बदले में कोई क्षतिपूर्ति न दी।मेरा गाँव जंगल के बीच में है, आप हमें जंगल के निवासी नहीं मान रहे हैं। अतः वनाधिकार आन्दोलन उस क्षतिपूर्ति को माँग रहा है जिसमें उत्तराखण्ड को वनवासी प्रदेश घोषित कर उत्तराखंडियों को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण दिया जाए।
जब दिल्ली की सरकार उत्तराखण्ड का पानी दिल्ली की जनता को फ्री दे सकती है तो उत्तराखण्ड सरकार को भी जनता को निशुल्क पानी दिया जाना चाहिए। हमारे सारे ईंधन के कार्य जंगल से ही पूरे होते थे, इसलिए 1 गैस सिलेंडर व हर महीने निशुल्क मिलना हमारा हक है। अपना घर बनाने के लिए हमे निशुल्क पत्थर बजरी लकड़ी आदि मिलना चाहिए तथा दिल्ली की तरह 500 यूनिट बिजली भी निशुल्क मिले।युवाओं के रोजगार के लिए उत्तराखण्ड में उगने वाली जड़ी-बूटियों के दोहन का अधिकार स्थानीय समुदाय को दिया जाए। यदि कोई जंगली जानवर किसी व्यक्ति को विकलांग कर देता है या मार देता है तो सरकार को 25 लाख रु मुआवजा व पक्की सरकारी नौकरी देनी चाहिए। जंगली जानवरों द्वारा फसलों के नुकसान पर सरकार द्वारा तुरंत प्रभाव से 1500 रु प्रति नाली के हिसाब से क्षतिपूर्ति दी जाए। वन अधिकार अधिनियम-2006 को उत्तराखण्ड में लागू किया जाए। परम्परागत बीजों, फसलों, पशुओं, वन्य प्राणियों, वनस्पतियों, लोक कलाओं का सरंक्षण किया जाय। प्रदेश में अविलम्ब चकबंदी की जाय। शिक्षा व चिकित्सा सुविधायें निशुल्क दी जाये।