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दुनिया के तमाम देशों ने कोरोना महामारी के दौरान भारत के सदियों पुराने आयुर्वेद के सिद्धांतों को भी अपनाया है। आखिर किसने कहां और क्यों ? जाने 

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* कोरोना काल आयुर्वेद के उत्थान का स्वर्णिम अवसर = डॉ महेन्द्र राणा

( ब्यूरो ,न्यूज़ 1 हिन्दुस्तान )
हरिद्वार।
कोरोना महामारी से जब पूरी दुनिया आक्रांत है तब भारत में कोरोना से लड़ने में आयुर्वेद की भूमिका को न केवल सराहा गया है बल्कि आयुर्वेदिक औषधियों के वैेज्ञानिक प्रमाणन की जरूरत पर भी जोर दिया जा रहा है।  दुनिया के तमाम देशों ने कोरोना महामारी के दौरान भारत के सदियों पुराने आयुर्वेद के सिद्धांतों को भी अपनाया है। आयुर्वेद के विद्वानों के लिए यह बेहद पुरसुकून और गौरवमयी बात है। उन्होंने कहा कि हमारी परम्पराओ में आर्युवेद एक वरदान है। जिसे आज हम भूलते जा रहे है। यह बात भारतीय चिकित्सा परिषद उत्तराखण्ड के बोर्ड सदस्य ड्रॉ महेन्द्र राणा ने News 1 Hindustan से विशेष मुलाकात में  कही। 


डॉ महेन्द्र राणा ने कहा कि इसमें संदेह नहीं कि भारत ने दुनिया को स्वास्थ्य का ज्ञान दिया। ‘विषस्य विषमौषधं’ का प्रथम प्रतिपादन भी भारत ने ही किया था। प्लाज्मा थेरेपी या चमगादड़ से कोरोना वायरस रोधी वैक्सीन के उत्पादन की परिकल्पना के मूल में भी भारत का ‘विषस्य विषमौषधं’ अर्थात विष ही विष की औषधि होती है का सिद्धांत ही प्रमुख है। आचार्य सुश्रुत ने तो यहां तक कहा था कि जो रोग जहां पैदा होता है, उसकी औषधि भी वहीं पैदा होती है। गड़बड़ी जहां होती है, उसका इलाज भी वहीं होता है। आचार्य सुश्रुत ने अपने गुरु से यह भी कहा था कि उन्हें एक भी पौधा, एक भी वनस्पति और घास ऐसी नजर नहीं आती जिसमें कोई न कोई औषधीय गुण न हो।
 उन्होंने कहा कि आयुर्वेदिक औषधियों के वैज्ञानिक प्रमाणन पर जोर देकर भारत सरकार ने इस बात का संकेत दिया है कि यह देश अपनी प्राचीन चिकित्सा पद्धति के गौरवशाली दिनों को न केवल याद कर रहा है बल्कि उसे लौटाने की दिशा में भी आगे बढ़ने वाला है।
  कदाचित जंगलों और पहाड़ों पर खनिजों के दोहन कार्य के दौरान भी बहुत सारे औषधीय महत्व के पौधे नष्ट हो गए लेकिन आज भी भारत के पास बहुत बड़ा वानस्पतिक औषधीय भंडार है, अगर उसकी भी हिफाजत कर ली जाए तो अभी भी जन जीवन की सुरक्षा इत्मीनान और तसल्ली से की जा सकती है।


    उन्होंने कहा कि भारत में आयुर्वेद पर बहुत सारे ग्रंथ लिखे गए जो सैद्धांतिक और शास्त्र सम्मत हैं, लेकिन आज के युग में इसे वैश्विक स्तर पर लाने के लिए वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करने की जरूरत है। जब तक हम आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभाव को वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा प्रमाणित नहीं करेंगे तब तक आयुर्वेद की ताकत का दुनिया को अहसास नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि सरकार खुद इस दिशा में गंभीर हो। वह शोध और अध्ययन का बजट बढ़ाए और यह काम जिम्मेदार हाथों में सौंपे। अभी सरकार एलोपैथिक चिकित्सा पर स्वास्थ्य बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च करती है जबकि आयुर्वेदिक चिकित्सा पर महज तीन प्रतिशत खर्च करती है।  
आयुर्वेद को जीवन के स्वास्थ्य का विज्ञान कहा जाता है ,महर्षि सुश्रुत प्रदत्त स्वास्थ्य की परिभाषा  में लिखा गया है कि- ‘समदोषः समाग्निश्च समधातु मलःक्रियाः,प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ्य इति अभिधीयते।।’
अर्थात यदि सभी त्रिदोष अथवा जैव ऊर्जा एवं अग्नि अथवा चयापचय की प्रक्रिया संतुलित रहती है और यथोचित मलोत्सर्जन होता है तब स्वास्थ्य संतुलित रहता है। जब आत्मा, इंद्रियां, मन या बुद्धि आंतरिक शांति के साथ तारतम्य में होते हैं तब सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्तरों पर पूर्णतः तंदुरुस्त होने की स्थिति है।
 जिस तरह चीन में पारम्परिक चीनी दवाओं के सुरक्षित उपयोग पर नीतियों के विकास एवं नियमन हेतु बड़े प्रयास हो रहे हैं, कुछ उसी तरह का प्रयास भारत में भी करना होगा।
डॉ राणा के अनुसार आयुर्वेद विशेषज्ञों को ऐसी दवाएं खोजने की भी आवश्यकता है जो मरीजों को तत्काल राहत प्रदान करने के साथ उन्हें दवाओं के दुष्प्रभावों को दूर रखें। निजी क्षेत्र से भी अनुरोध है कि वे सीएसआर के तहत कोष के एक हिस्से का इस्तेमाल आयुर्वेद को मजबूत बनाने में करें, आयुर्वेद से संबंधित संस्थाएं खोलने में करें।

कोई भी देश विकास की कितनी ही चेष्टा करे, कितना ही प्रयत्न करे लेकिन वह तबतक आगे नहीं बढ़ सकता, जबतक वह अपने इतिहास, अपनी विरासत पर गर्व करना नहीं जानता। यह सच है कि आयुष मंत्रालय ने हर जिले में आयुर्वेदिक चिकित्सालय खोलने की दिशा में काम आरंभ किया है । आयुर्वेद की स्वीकार्यता की पहली शर्त यह है कि आयुर्वेद पढ़ने वालों की इस पद्धति में शत‑प्रतिशत आस्था हो, भरोसा हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना काल में आयुर्वेद के दिन भी बहुरेंगे। आयुर्वेद चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल बजट बढ़ेगा बल्कि उसका सही उपयोग भी होगा। आयुर्वेदिक चिकित्सक पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के बीच जाएंगे और उनके द्वारा प्रयुक्त औषधियों की जानकारी हासिल करेंगे।
 इसमें कोई दो राय नहीं है कि कोरोना काल में आयुर्वेद में वर्णित रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाली औषधियों का महत्व बढ़ा है ,लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि यह जागरूकता केवल नुस्खों तक ही सीमित न रह जाये । सरकार ,चिकित्सकों एवं मीडिया के सामुहिक प्रयास से आयुर्वेद को एक शशक्त  एवं प्रामाणिक चिकित्सा पद्धति के रूप में स्थापित करना होगा ,जिससे न केवल भारत अपितु सारे विश्व को हमारी इस महान निरापद चिकित्सा का लाभ मिल सके ।

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