( ब्यूरो ,न्यूज़ 1 हिन्दुस्तान )
नई दिल्ली। इस्लाम धर्म में हज एक ऐसा पवित्र कर्तव्य है जिसे हर मुसलमान अपने जीवन में एक बार जरूर पूरा करना चाहता है। हज का सबसे अहम और भावनात्मक पड़ाव है “अराफात का दिन” और उससे जुड़ा “जबल अर-रहमा” यानी रहमत का पहाड़. यह वह स्थान है जहां लाखों हाजी इकट्ठा होकर आंसुओं के साथ अल्लाह से रहमत, माफी और दुआएं मांगते हैं। अराफात का यह मैदान और पहाड़ इस्लामी इतिहास, आस्था और अध्यात्म से गहराई से जुड़ा है। अराफात, सऊदी अरब के मक्का शहर से करीब 20 किलोमीटर पूर्व में स्थित है। यह वह स्थान है जहां हज के दौरान 9वीं जिलहिज्जा (इस्लामी कैलेंडर का अंतिम महीना) को दुनियाभर से आए लाखों मुस्लिम हाजी इकट्ठा होते हैं। इस दिन को “यौम-ए-अराफा” कहा जाता है।
ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल विदा…
इस्लामी परंपरा के अनुसार पैगंबर हजरत मोहम्मद ने अपनी विदाई हज के दौरान यहीं खड़े होकर एक ऐतिहासिक ख़ुत्बा (उपदेश) दिया था। इसी उपदेश को “ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल विदा” कहा जाता है, जिसमें उन्होंने इंसाफ, समानता, स्त्री अधिकार और भाईचारे का संदेश दिया। यह दिन कुरआन में भी विशेष स्थान रखता है।
अराफात के मैदान के बीच में स्थित एक छोटी सी पहाड़ी को रहमत का पहाड़ कहा जाता है। मान्यता है कि इसी स्थान पर हजरत आदम और हजरत हव्वा को जन्नत से निकालने के बाद पुनर्मिलन हुआ था और यहीं पर उन्होंने अल्लाह से माफी मांगी थी, जिसे कबूल कर लिया गया। इसी कारण इसे “रहमत (दया/माफी) का स्थान” माना जाता है।
यहां क्यों रोते हैं हाजी?
अराफात का दिन हज की सबसे अहम रूकन (कड़ी) मानी जाती है। हदीस के अनुसार, “हज है ही अराफा” यानी यदि कोई अराफात नहीं गया, तो उसका हज पूरा नहीं माना जाएगा। इस दिन हाजी सफेद कपड़ों में बिना भेदभाव एक मैदान में खड़े होकर अपने गुनाहों की माफी मांगते हैं। यहां की रूहानी फिजा, अल्लाह के करीब होने का एहसास, और आत्मनिरीक्षण का भाव लोगों को भावुक कर देता है। कई हाजी इस पल को जीवन का सबसे पवित्र अनुभव बताते हैं। अराफात में बिताया गया हर पल मुसलमानों के लिए आत्मशुद्धि और अध्यात्मिक उन्नति का अवसर होता है। यहां की दुआएं विशेष मानी जाती हैं और विश्वास किया जाता है कि इस दिन अल्लाह हर नेक नीयत को सुनते और गुनाहों को माफ कर देते हैं।

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